देश हमारा है, देशभक्ति और आजादी के माने संप्रभुता, सामाजिक बराबरी और लोकतन्त्रा होता है

औपनिवेशिक प्रभुओं के खिलापफ कितने ही शहीदों की कुर्बानियों और आम-अवाम के कठिन-कठोर संघर्षों की जमीन पर हमारी आजादी की बुनियाद टिकी हुई है। पर आज हम देख रहे हैं कि एक तरपफ तो सरकार पिफर से कंपनी-राज कायम करने में जुटी हुई हैं, दूसरी ओर उसकी सरपरस्ती में संघ-गिरोह दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की आजादी पर लगातार हमले कर रहा है।
अभी दलित समुदाय ने अमानवीय श्रम और ब्राह्मणवादी शोषण से आजादी के लिए ऊना मार्च किया। गुजरात के अल्पसंख्यक समुदाय और पूरे मुल्क की लोकतान्त्रिाक ताकतों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए उन्होंने सांप्रदायिक-जातिवादी पफासीवादियों के खिलापफ गुजरात के आसमान को अपने नारों से गुंजा दिया है- ‘मरी गाय की पूंछ तुम रखो, हमको हमारी जमीन दो!’ ‘राष्ट्रवाद के नाम पर गाय की रक्षा और इन्सानों का कत्ल, नहीं सहेंगे!’
‘देशभक्ति’ के नाम पर सरकार अजब-गजब पफरमान जारी कर रही है। ‘देशभक्ति’ को बेहद सस्ता बना दिया गया है। पूरे साल संघी गुंडे ‘देशभक्ति’ और ‘देशद्रोही’ का प्रमाणपत्रा बांटते घूम रहे थे। पर सरकारी और संघी ‘देशभक्ति’ से परे जरा ठहर कर धीरज से सोचने की जरूरत है कि असल में आजादी और देशभक्ति के क्या मायने-मतलब हैं? देश से मोहब्बत का क्या अर्थ है?
अपने मुल्क से मोहब्बत के दो बेहद जरूरी हिस्से होते हैं। पहला हिस्सा है- देश की संप्रभुता। माने हमारा मुल्क आर्थिक मामलों और विदेश नीति के मामलों में निर्णय लेने के लिए आजाद हो, ताकतवर देशों और साम्राज्यवादी ताकतों के खिलापफ घुटना टेकने की बजाय हम अपने अवाम के हित के लिए जरूरी पफैसले ले सकें। मुल्क से मोहब्बत का दूसरा पहलू है- देश के भीतर सामाजिक और आर्थिक बराबरी। इसलिए क्योंकि इसी बराबरी और लोगों की एकता पर हमारे लोकतन्त्रा की बुनियाद टिकी है।
संघ-भाजपा-विद्यार्थी परिषद की ‘देशभक्ति’ की परिभाषा में संप्रभुता या सामाजिक बराबरी की कोई जगह नहीं है। उलटे आजादी के आंदोलन से लेकर अबतक इनका इतिहास उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के चरणों में लोट जाने का, मापफी मांगने का रहा है, ‘संस्कृति’ के नाम पर सामाजिक गैर-बराबरी थोपने का रहा है।
आजादी की लड़ाई के दौरान हिंदुत्व के ‘हीरो’ सावरकर ने अंग्रेजों से मापफी मांगी, क्या यह ‘देशभक्ति’ थी?
संघ-संस्थापक गुरु गोलवरकर ने घोषित किया था कि स्वाधीनता आंदोलन द्वारा ‘अंग्रेज विरोध’ को देशभक्ति और राष्ट्रवाद कहना ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ है। क्या यह ‘देशभक्ति’ थी?
एक और भाजपा-संघ के हीरो थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी। इन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान न सिपर्फ बंगाल साकार के मंत्रालय से इस्तीपफा देने से इंकार कर दिया, बल्कि उस आंदोलन को कुचलने और उसका ‘विरोध’ करने तरीके सुझा रहे थे। जब मुल्क आजाद हुआ, तब संघ ने पफरमाया कि तीन की संख्या अपने आप में बुरी है, इसलिए हिन्दू तिरंगे झंडे को कभी भी नहीं अपनाएंगे। क्या यह देशभक्ति थी?
साम्राज्यवाद के सामने घुटना टेकने की प्राचीन संघी परंपरा का भाजपा आज भी दिलो-जान से पालन कर रही है। ॅज्व् के निर्देशों पर चलते हुए मोदी सरकार ळ।ज्ै के मातहत भारत की शिक्षा को खरीदने-बेचने का माल बना देने के लिए कमर कसे हुए है। क्या यह देशभक्ति है?
थ्क्प् लाकर, भारत के पेटेंट कानूनों में बदलाव करते हुए, ‘अनिवार्य लाइसेंसिंग’ को कमजोर करते हुए इस बात की गारंटी की जा रही है कि हम जीवन रक्षक जेनरिक दवाएं सस्ती कीमत पर न बना पाएं। अमरीकी दावा कंपनियों के पफायदे के लिए यह सब जुगत लगाई जा रही है। थ्क्प् पर मोदी सरकार के यू-टर्न के पीछे निश्चित की अमरीकी दबाव है। तो क्या यही देशभक्ति है?
अपनी प्रफांस यात्रा में मोदी ने रिलायंस और प्रफांसीसी कंपनी डसाल्ट एविएशन के बीच बेहद बढ़ी हुई कीमतों पर 36 खराब रापफाल जेट विमानों की खरीद का समझौता करवाया। इससे एक तरपफ तो संकटग्रस्त प्रफांसीसी कंपनी घाटे से उबर आई दूसरी ओर अंबानियों को भीषण मुनापफा हुआ। क्या यह देशभक्ति है ?
परमाणु संयन्त्रा बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आपदा प्रभावित भारतीय लोग मुकदमा न कर सकें, इसलिए मोदी सरकार ने भारत के परमाणु लाईबिलिटी कानून में ओबामा के दबाव में पफेरबदल किए। इसी भाजपा ने ठीक इसी मसले पर 2008 में यूपीए सरकार को घेरते हुए कहा था कि नागरिक परमाणु लाईबिलिटी कानून के जरिये यूपीए सरकार वेस्टिंगहाउस और जनरल इलेक्ट्रिक्स नाम की दो अमरीकी कंपनियों को किसी भी आपदा की स्थिति में जिम्मेदारी उठाने से बचा रही है और यह बोझ भारत के कंधे पर डाल दे रही है। आज अपने कहे से ठीक उलटते हुए भाजपा सरकार अमरीका के हितों में उसी काम को और आगे बढ़ा रही है, जिसे यूपीए कर रही थी। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम पर मोदी सरकार श्रम, पर्यावरण और बाल श्रम कानूनों को कमजोर करती जा रही है। क्या यही देशभक्ति है ?
सामाजिक बराबरी के प्रति भाजपा और संघ की घृणा छुपाए नहीं छुपती। उनकी विचारधारा ही गैर-बराबरी व जातिगत, धार्मिक और लैंगिक वर्चस्व पर टिकी है। 1949 में संघ चाहता था कि मनुस्मृति को भारत का संविधान बना दिया जाये। आज भी मनुस्मृति के खिलापफ न बोलने का खामियाजा जेएनयू में विद्यार्थी परिषद को उठाना पड़ता है। संघ-पोषित गौरक्षा दल पूरे देश में दलितों और मुसलमानों की हत्या करते घूम रहे हैं, कोबारापोस्ट के स्टिंग आॅपरेशन ने सापफ-सापफ दिखया कि भाजपा-पोषित रणवीर सेना ने कैसे बथानी टोला में दलितों और मुसलमानों का नरसंहार किया। संघ और भाजपा नेता जेएनयू और जाधवपुर विश्वविद्यालयों की महिलाओं को ‘चरित्राहीन’ बताते नहीं थकते, महिलाओं के लिए ‘ड्रेेसकोड’ सुझाते हैं, ‘लव जिहाद’ के नाम पर घृणा पफैलाते हैं और अंतरधार्मिक-अंतरजातीय विवाहों पर हमला करते हैं।
संघ की देशभक्ति की परिभाषा सिपर्फ सांस्कृतिक-धार्मिक मुहावरे में ही क्यों अभिव्यक्त होती है, संप्रभुता, सामाजिक न्याय और लोकतन्त्रा आधारित देशभक्ति की बात करते ही वे भागने क्यों लगते हैं?
संप्रभुता, सामाजिक न्याय और लोकतन्त्रा आधारित सच्ची देशभक्ति से अपनी गद्दारी को छुपाने के लिए संघ और भाजपा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की खाल ओढ़ते हैं। उनका यह ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ क्या है? सावरकर ने बताया था कि ‘बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता’ जिसमें ‘हिन्दू… पूर्ण बहुमत में होंगे और वे ही राष्ट्रीय समुदाय होंगे और देश के राष्ट्रवाद का सूत्राीकरण करेंगे’। तो संघ-भाजपा और हिन्दू महासभा के लिए यह ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ कुछ और नहीं, सिपर्फ सांप्रदायिक पफासीवाद है। इस ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ में भारतीय कुछ भी  नहीं है। भारत में राष्ट्रवाद दूसरे पश्चिमी देशो की तरह एक भाषा या एक धर्म पर आधारित नहीं रहा है। हमारा राष्ट्रवाद पिफरंगी निजाम के खिलापफ विभिन्न समुदायों, विश्वासों और भाषाई समूहों की साझा लड़ाई से पैदा हुआ था। अब यह कोई अचरज की बात नहीं कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के पैरोकार सावरकर ने ही ‘द्विराष्ट्र’ का भी सि(ांत दिया जो कि अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति के लिहाज से एकदम पिफट बैठा।
आज भी संघ और भाजपा राष्ट्रवाद को ‘सांस्कृतिक’ ;जैसे कि हिन्दू बहुसंख्यावादद्ध आधार पर व्याख्यायित करते हैं और ‘बांटो और राज करो’ के पफार्मूले पर चलते हैं। यों वे कारपोरेट, साम्राज्यवादी, जातीय और लैंगिक दमन और शोषक भारतीय निजाम जैसे असली दुश्मनों के खिलापफ लोगों की साझा एकजुट लड़ाई को बांटने की पुरजोर कोशिश करते हैं।
संघ और भाजपा ने आजादी की लड़ाई के दौर में उपनिवेशवाद-विरोध संघर्ष  से गद्दारी की थी, आज भी वे साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्रवाद से गद्दारी कर रहे हैं। आजादी के वक्त वे मनुस्मृति को संविधान बनाना चाहते थे, आज के वक्त उनकी हत्यारी भीड़ दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं पर मनुवादी मूल्य थोप रही है। आर्थिक-राजनीतिक संप्रभुता और सामाजिक बराबरी की मजबूत देशभक्ति की जगह संघ-भाजपा सिपर्फ पफर्जी पाकिस्तान-बांग्लादेश विरोधी उन्माद पफैला रहे हैं, देश की संप्रभुता और सामाजिक-आर्थिक बराबरी के के लिए लड़ने वालों और अल्पसंख्यकों के खिलापफ घृणा पफैला रहे हैं, उन पर हमले कर रहे हैं। वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों या पाकिस्तान व बांग्लादेश के प्रतिरोधी नागरिकों के अधिकारों को लेकर कतई चिंतित नहीं है। पाकिस्तान-विरोधी उन्माद पफैला कर वे भारत के भीतर बंटवारा कर देना चाहते हैं, जिससे हर मुसलमान को संभावित ‘पाकिस्तानी, देशद्रोही’ बताया जा सके, प्रतिरोध की हर आवाज को ‘पाकिस्तान चले जाओ’ कहा जा सके। यह सब करते हुए वे चाहते हैं कि भारत की अवाम असली शोषकों की बजाय अल्पसंख्यकों और प्रतिरोधी आवाजों को अपना दुश्मन मान ले। इस मुल्क की अवाम की सामाजिक आजादी, मुल्क के लोकतन्त्रा और संप्रभुता को सुरक्षित-विकसित करने के लोगों के संघर्षों को तोड़ देने और उनकी दिशा बदल देने की यह एक तरकीब है, जो उन्हें अपने अंग्रेज आकाओं से हासिल हुई है।
जब हमारे मुल्क के दलित मैला ढ़ोने और ‘गोमाता’ की लाश उठाने से माना कर देते हैं तब नगरपालिकाओं, गांवों, कस्बों और शहरों के हाथ-पैर पफूल जाते हैं। इस मुल्क को आजाद हुए 70 साल हुए, हम अभी तक यह तक नहीं सीख पाये हैं कि बिना जाति के शोषणात्मक-दमनात्मक ढांचे के बगैर अपना मैला कैसे सापफ किया जाये! हरियाणा से लेकर तमिलनाडु तक अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादीशुदा जोड़ों की हत्याएं हमारे बारे में क्या बताती हैं? आज भी हमारे मुल्क में किसी महिला की बेइज्जती करने के लिए सबसे पहला हथियार उसे ‘आजाद’ कह देना है, क्यों? 70 साल बाद आज भी हमारे पास औपनिवेशिक जलियांवालाबाग जैसे तरीकों वाला कानून ।थ्ैच्। है, मणिपुर, नागालैंड और कश्मीर जैसी जगहों पर बात करने के लिए गोलियों के छर्रे हैं!

दोस्तों, देश की संप्रभुता और लोगों की जीविका, उनके जल, जंगल, जमीन पर अधिकार सरकारी संरक्षण में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा छीने जा रहे हैं। कश्मीरी अवाम से, दलितों से, महिलाओं से, अल्पसंख्यकों से और तमाम ऐसे संघर्षरत हाशिये के तबकों से किया गया लोकतन्त्रा का वादा टूट रहा है, सरकारें इस वादे को मिटा देने पर तुली हुई हैं। ऐसे में आइये, संप्रभुता, सामाजिक बराबरी, सम्मान और लोकतन्त्रा पर आधारित सच्ची देशभक्ति के लिए एकजुट हों।

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